बात 1951-52 की है. आज़ाद भारत में पहली बार आम चुनाव हो रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी वक्ता के रूप में ख्याति पा चुके थे, ये कौशल उन्हें अपने शिक्षक पिता से विरासत में मिला था. हिंदी भाषा के बाजीगर अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव अभियान में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ हिंदी अनुवादक के रूप में रखा गया. यही वजह थी कि चुनाव अभियान के चरम पर वाजपेयी रेलगाड़ी में सवार होकर मुखर्जी के साथ राजस्थान के कोटा शहर पहुंचे.

राज्य में चुनावों का समन्वय कर रहे प्रचारक स्टेशन पर उन्हें लेने पहुंचे. ये लम्हा 2 व्यक्तित्वों के अनोखे रिश्ते की नींव डालने वाला था. एक ऐसी जोड़ी बनने वाली थी, जिसे देश के सियासी पटल पर कई इबारतें लिखनी थीं. कोटा में पहली बार लालकृष्ण आडवाणी की मुलाकात अटल बिहारी वाजपेयी से हुई और 25 वर्षीय आडवाणी, अटल के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुए. करीब 60 साल बाद आडवाणी खुद पर वाजपेयी के असर को याद करते हुए कहते हैं एक कवि जो राजनीति की ओर बढ़ रहा था…उनके भीतर कुछ सुलग रहा था और उनके भीतर की आग से उनके चेहरे पर एक आभा थी. आडवाणी ने अपनी जीवनी में इस पहली मुलाकात का ज़िक्र किया है.

आडवाणी पर कैसे पड़ा वाजपेयी की संगति का असर?

धीर-गंभीर आडवाणी पर वाजपेयी की संगति का प्रभाव पड़ने लगा था. आडवाणी भाषणों पर शोध में वाजपेयी की सहायता करते रहे. साथ ही जनसंघ की दिल्ली इकाई के साथ काम करते रहे. उन्होंने देखा कि हिंदुओं की पार्टी ने कैसे 1958 के दिल्ली नगर निगम चुनावों के लिए वामपंथियों के साथ गठबंधन किया था. राजनीति को निश्चित सांचों में देखने के आदी आडवाणी अब दूसरों के साथ तालमेल करना सीख रहे थे. उस चुनाव की हार के बाद अटल-आडवाणी राज कपूर और माला सिन्हा की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ देखने गए.

मुख्तलिफ मिजाज के बावजूद बनी अटूट जोड़ी

विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी’ में लिखते हैं, 1970 के दशक की शुरुआत तक आडवाणी और वाजपेयी की जोड़ी अटूट बन चुकी थी. वाकपटु वाजपेयी को शांत आडवाणी का साथ अच्छा लगता था. वे दोनों साथ में फिल्में देखते और पानी पूरी का मज़ा लेते. आपसी निजी पसंद के अलावा आडवाणी को तैयार करने में वाजपेयी का राजनीतिक अभिप्राय था. उस समय के एक जनसंघ नेता कहते हैं, वाजपेयी ने आडवाणी को इसलिए चुना, क्योंकि वे अच्छी अंग्रेज़ी बोलते थे, विश्वसनीय थे. आडवाणी ने अपने एक सहयोगी को बताया था कि मैं राजनीतिक तौर पर कई लोगों से जूनियर था और मैं सार्वजनिक सभाओं का वक्ता भी नहीं था. किसी भी जननेता और पार्टी के अध्यक्ष के लिए यह सबसे बुनियादी जरूरत है, लेकिन वाजपेयी जी ने मुझसे कहा कि आप उसे हासिल कर लेंगे.

आपातकाल की वो सुबह जिससे बेखबर थे अटल-आडवाणी

देश में आपातकाल लग चुका है, लेकिन 26 जून 1975 की सुबह जब वाजपेयी और आडवाणी उठे तो उन्हें भावी घटनाक्रम की कोई जानकारी नहीं थी. वे दोनों दल-बदल विरोधी कानून पर बने एक संसदीय आयोग में शामिल होने के लिए बेंगलुरु (तब बंगलौर) में थे. जून का महीना दिल्ली में सबसे गर्म होता है और ऐसे में उनके लिए उद्यानों के शहर में होना राहत की बात थी. सुबह साढ़े सात बजे जनसंघ के स्थानीय कार्यालय से आडवाणी को फोन आया कि दिल्ली में विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जा रहा है. पुलिस अटलजी और आपको गिरफ़्तार करने आती ही होगी. एक घंटे बाद तक आज़ाद घूम रहे आडवाणी ने रेडियो पर अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज़ सुनी. उन्होंने आपातकाल को सही ठहराते हुए देश को ‘उनके द्वारा कुछ प्रगतिशील कदम उठाने की शुरुआत किए जाने के बाद से तैयार हो रहे एक गहरे और व्यापक षड्यंत्र से’ बचाने की बात की. तभी वाजपेयी वहां पहुंचे और दोनों पुलिस का इंतज़ार करते हुए नाश्ते के लिए कैंटीन की तरफ बढ़ गए. सुबह 10 बजे उन्हें अरेस्ट कर बैंगलोर की सेंट्रल जेल ले जाया गया, जहां उन्हें बड़े से आयताकार कमरे में रखा गया. जेल ने वाजपेयी और आडवाणी को मौका दिया कि वे अपनी शुरुआती घनिष्ठता को फिर से तरोताज़ा करें, जो एक प्रकार की सहायक साझेदारी के कारण फीकी पड़ने लगी थी.

आडवाणी ने अप्पा घटाटे को तार भेज जेल में मंगाए अटलजी के ऊनी कपड़े

अटल बिहारी वाजपेयी सादा जीवन के आदी नहीं थे. ऐसे में आडवाणी को चिंता हुई कि उनके मित्र जेल के हालात को नहीं झेल पाएंगे. आपातकाल लागू होने के बस एक सप्ताह बाद 1 जुलाई 1975 को आडवाणी ने अप्पा घटाटे को तार भेजकर उन्हें अटलजी के घर से ऊनी कपड़े और अटलजी की मेडिकल रिपोर्ट्स लाने को कहा. जब घटाटे बैंगलोर जेल पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि वाजपेयी ने जेल द्वारा उपलब्ध गर्म कपड़े पहने थे. उन्होंने मज़ाक में कहा कि अब इंदिरा गांधी ही खाना देंगी और इंदिरा ही मुझे कपड़े देंगी.

Atal Bihari Vajpayee and LK Advani addressing Media and other Partymen are behind them ( BJP, News Portrait )

बीजेपी की स्थापना में ‘जुगलबंदी’ की भूमिका

जुगलबंदी ऐसे संगीत को कहते हैं, जिसमें दो संगीतज्ञ इतने तालमेल से ऐसी प्रस्तुति देते है कि पता नहीं चलता कि कौन मुख्य कलाकार है और कौन संगत दे रहा है. आडवाणी कई दशकों तक वाजपेयी के मातहत रहे थे, लेकिन 1980 तक उनका रिश्ता ज़्यादा बराबरी का हो गया था. पहले आडवाणी को हमेशा वाजपेयी की ज़रूरत पड़ती थी, लेकिन अब वाजपेयी को भी आडवाणी की आवश्यकता थी. यही कारण था कि नई भाजपा का स्वरूप तय करते समय वाजपेयी ने सुनिश्चित किया कि जनता सरकार के असफल प्रयोग से सबक लेने में आडवाणी भी उनके साथ शामिल हों. साथ मिलकर विचार करते हुए दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि जनता सरकार ने नागरिक स्वतंत्रता, समाजवाद और विकेंद्रीकरण की एक बिल्कुल अलग विचारधारा प्रस्तुत की थी. 1980 के चुनावों में मतदाताओं ने जेपी की विचारधारा की विरासत को नहीं, बल्कि उसे अमलीजामा पहनाने वाले नेताओं की आपसी लड़ाई को खारिज किया था. लालकृष्ण आडवाणी ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की. नई पार्टी के अध्यक्ष वाजपेयी ने 6 अप्रैल को अपने भाषण में घोषणा की कि ‘जनता पार्टी की नीतियों और उसके कार्यक्रमों में कोई खामी नहीं थी. असल में लोगों ने राजनेताओं के व्यवहार के खिलाफ वोट दिया था’. 6 अप्रैल 1980 का दिन ख़त्म होने से पहले ही पार्टी के नाम की घोषणा हो गई. जनसंघ नाम अपनाने की बजाय नई पार्टी ख़ुद को जनता पार्टी का उत्तराधिकारी बताना चाहती थी, इसे नाम दिया गया भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा.

84 के बाद वाजपेयी को बीमारियों ने घेरा

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में लोकसभा चुनाव हुए. इलेक्शन हारने के बाद वाजपेयी को राज्यसभा का सदस्य बनाने में एक साल से ज़्यादा का समय लग गया. दिल्ली में अपनी आवश्यकता नहीं होने के कारण वे अपनी ख़राब हो रही किडनी के इलाज के लिए अक्सर अमेरिका जाने लगे, जहां वे न्यूयॉर्क में अपने एक मित्र डॉक्टर मुकुंद मोदी के घर में रहते थे. वे कौल दंपति की बेटी नम्रता के साथ नहीं रहते थे, जो अमेरिका में डॉक्टर थीं और एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर से उनकी शादी हुई थी. वाजपेयी की जीवनी के लेखक विजय त्रिवेदी कहते हैं कि नमिता के मुकाबले नम्रता से उनका अलग रिश्ता था’. विदेश यात्रा खर्चीली थी, इसलिए प्रधानमंत्री राजीव गांधी यह सुनिश्चित करते थे कि वाजपेयी को अमेरिका जाने वाले सरकारी प्रतिनिधिमंडलों में शामिल किया जाए और वाजपेयी ने भी इसे स्वीकार किया था.

पेशेवर दूरी भी नहीं बिगाड़ पाई संबंध

पेशेवर दूरी के दौर में वाजपेयी और आडवाणी के संबंध बिगड़ जाने चाहिए थे, लेकिन वे लगातार मिलते रहे, सलाह-मशवरा करते रहे. कई मुद्दों पर सहमत और असहमत होते रहे. दोनों के मित्र रह चुके एक व्यक्ति ने बताया कि आडवाणी ने जब पार्टी अध्यक्ष का उल्लेख किया तो वह वाजपेयी को सम्मानित महसूस कराने के लिए अतिरिक्त प्रयास करते थे. एक दौर ऐसा भी था जब भाजपा और आरएसएस का हर नेता वाजपेयी से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता था. आडवाणी ही यह सुनिश्चित करने वाले एकमात्र व्यक्ति थे कि वाजपेयी इस राजनीतिक बियाबान में गुम होकर अप्रासंगिक न हो जाएं.

बीजेपी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में सफल हुई जोड़ी

भारतीय जनता पार्टी को मजबूत करने में अटल बिहारी वाजेपयी और लालकृष्ण आडवाणी की अहम भूमिका रही है. 1980 में बीजेपी के गठन के बाद पार्टी ने पहला आम चुनाव 1984 में लड़ा, तब बीजेपी को केवल 2 सीटों पर ही कामयाबी मिली थी. 1989 में बीजेपी 89 सीट पर पहुंच चुकी थी. 1996 के चुनाव में बीजेपी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. तब भारत के राष्ट्रपति ने बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. हालांकि बीजेपी सरकार कुछ दिनों में ही गिर गई. 1998 में बीजेपी ने फिर अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार बनाई. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. बीजेपी ने 1999 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर लोकसभा चुनाव लड़ा. इस गठबंधन में 20 से अधिक दल शामिल हुए. इसमें बीजेपी को 182 सीटें हासिल हुई थीं. एक बार फिर से अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने.

हेमंत पाठक

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Desert Darshan

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